Sunday, March 17, 2013

now here goes another poetry from my dear friend

मैं.. सूरज को एक नया ... ख़त लिखता हूँ ,
खुश्क पलकों पे जो सदा रहतीं थीं
सुबह -ओ -शाम कहाँ हैं???....पूंछा करता हूँ??
अब यहाँ नहीं दिखतीं ..कहाँ गुम हो गयीं हैं....??
शिद्दत से उसको ......तलाशने को कहता हूँ...!
आसमान पर वो पतंग सा उड़ता फिरता है ,
मैं उसकी एक नन्ही सी छाओं को तरसता हूँ.....!

तेरी हरी चूड़ियों की झंकार बुलाती है मुझे ,
तेरी पायल की छम -छम सताती है मुझे,
सूरज की किरणों के संग कांच की दीवार को पार करता हूँ
और ....तुझे सुर्ख कपड़ों में देखा करता हूँ.

एहसास की नयी फसलें उगने लगती हैं
तेरे ही नाम से लहलहाने लगती हैं ..!
कच्चे रेशम सी तुम मुझसे लिपट जाती हो ..!
मेरे माथे पे पूजा के टीके सी लग जाती हो .!

कोई राग विरह का छेड़ देता है..!
एक गीत उसकी रग -रग में भर देता है...!
मेरे संग चलने को मचल उठती है..!
उसकी हर सांस फिर ये कह उठती है...!

"बाबुल मोरा नैहर छुट्यो ही जाये "......!!!!!!.

-राहुल

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